नई दिल्ली (नेशनल डेस्क): केंद्र सरकार ने आगामी जनगणना के दौरान जातीय तथ्यांकों को जुटाने की योजना की घोषणा की है। गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में विपक्षी दलों ने जातीय जनगणना को एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा बनाने का प्रयास किया था।जातीय जनगणना का उद्देश्य लोगों की जातीय पहचान के आधार पर व्यवस्थित तथ्यांकों को जुटाना है। ऐतिहासिक तौर पर, जातियां भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करती आई हैं। इसलिए, जातीय तथ्यांकों की सहायता से, विभिन्न जातियों के स्थान, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, और प्रतिनिधित्व की जानकारी प्राप्त की जा सकती है, जो सामाजिक न्याय और कल्याणकारी नीतियों के निर्माण में सहायक हो सकती है।
भारत में पहली जनगणना 1881 में हुई थी, जब देश की कुल आबादी 25.38 करोड़ थी। 1881 से 1931 तक जातीय जनगणना हुई, लेकिन 1941 में जुटाए गए जातीय आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, 1951 में पहली जनगणना हुई जिसमें सरकार ने सिर्फ अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के आंकड़े ही जुटाए। 1991 में, राज्य सरकारों को अपनी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सूची तैयार करने के लिए सर्वेक्षण करने की अनुमति दी गई। यह कदम ओबीसी वर्ग को सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के उद्देश्य से उठाया गया था। हालांकि, राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना नहीं हुई।
2011 में, यूपीए सरकार ने लगभग 4.5 हजार करोड़ रुपए खर्च करके जातीय जनगणना की, लेकिन जातियों के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। इससे पहले, 1931 के बाद से जातीय तथ्यांकों का संग्रहण का यह पहला प्रयास था। गौरतलब है कि बिहार, तेलंगाना, और कर्नाटक के सरकारों ने अपने स्तर पर जातीय जनगणना की है, जिसका उद्देश्य राज्य की आरक्षण नीतियां और कल्याणकारी योजनाओं को कुशलतापूर्वक क्रियान्वित करना था। बिहार के जातीय सर्वेक्षण 2023 से पता चला कि राज्य की कुल आबादी में ओबीसी और अत्यंत पिछड़े वर्गों (ईबीसी) की हिस्सेदारी 63 प्रतिशत से अधिक है।
जातीय जनगणना का मतलब सिर्फ जातियों की संख्या गिनना नहीं है। इसकी मांग के पीछे राजनीतिक उद्देश्य हैं और इसके परिणामस्वरूप गहरे सामाजिक प्रभाव हो सकते हैं। इससे चुनावी रणनीतियों पर भी प्रभाव पड़ सकता है। जातीय जनगणना के समर्थन में यह तर्क किया जाता है कि जबकि 1951 से एससी और एसटी जातियों के आंकड़े प्रकाशित होते रहे हैं, लेकिन ओबीसी और अन्य जातियों के आंकड़े प्राप्त नहीं होते। ऐसे में, ओबीसी की वास्तविक आबादी का अनुमान लगाना चुनौतीपूर्ण होता है। इसके अलावा, यह भी कहा जाता है कि उनके सामाजिक-आर्थिक विकास की योजनाओं के निर्माण में ठीक से आंकड़े होने से सहायता मिलेगी।
एक समूह का मानना है कि जातीय जनगणना की मांग के पीछे अस्थायी जातियों को सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का उद्देश्य नहीं है, बल्कि समाज को विभाजित करके राजनीतिक लाभ उठाने का इरादा है। उनका कहना है कि सरकार के पास पहले से ही जरूरी आंकड़े हैं, जिनके आधार पर कमजोर वर्गों के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए नीतियां और कार्यक्रम कुशलतापूर्वक क्रियान्वित किए जा सकते हैं। उनका विचार है कि जातीय जनगणना से जातीय विभाजन और गहरा होगा, और यह समाज में तनाव और कटुता पैदा करेगा।