Friday, May 16, 2025 09:28:18 AM

नरसंहारों का दौर 1980 के दशक में शुरू
एक साथ बिछा दी गईं थीं 30–40–50 लाशें

आज भी जब बिहार के नरसंहारों की चर्चा होती है, तो लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं. जो लोग बिहार और वहां की राजनीति से परिचित नहीं हैं, उनके लिए यह जानना जरूरी है कि बिहार में नरसंहारों और नक्सलवाद के

एक साथ बिछा दी गईं थीं 30–40–50 लाशें
बिहार
पाठकराज

बिहार में नरसंहारों का दौर 1980 के दशक में शुरू हुआ था, जब जातीय लड़ाई की वजह से 1977 में बेलछी का नरसंहार हुआ था. उसके बाद तो 90 के दशक में नरसंहारों का चरम रहा, हालांकि 2000 के आते-आते नरसंहारों पर लगाम कस गई और नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद तो नरसंहारों का युग समाप्त ही हो गया. आज भी जब बिहार के नरसंहारों की चर्चा होती है, तो लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं. जो लोग बिहार और वहां की राजनीति से परिचित नहीं हैं, उनके लिए यह जानना जरूरी है कि बिहार में नरसंहारों और नक्सलवाद के बीच अटूट संबंध क्यों और कैसे था.

नक्सलवाद का जन्म बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में 1967 में हुआ था. यह गांव दार्जिलिंग जिले में पड़ता है. नक्सलवादी आंदोलन का उद्देश्य समाज में व्याप्त असमानता को मिटाना और गरीब किसानों को उनका हक दिलाना था. नक्सलवाद का प्रसार बंगाल से ही बिहार में हुआ. चूंकि बिहार में उस वक्त सामाजिक असमानता बहुत ज्यादा थी, इसलिए नक्सलवाद को सहजता से पैर पसारने में मदद भी मिल गई. अपने किताब में पत्रकार और लेखक राहुल पंडित ने लिखा है कि नक्सलवाद ने बिहार में भूमिहीन दलित मजदूरों को संगठित किया. किताब में राहुल पंडित लिखते हैं कि बिहार में नक्सलवाद एक विचारधारा के रूप में नहीं बल्कि एक जरूरत के रूप में पनपी. जिस वक्त नक्सलवाद बंगाल में जन्मा उस वक्त बिहार में जमींदारों का अत्याचार चरम पर था और गरीबों का साथ पुलिस भी नहीं दे रही थी और राज्य भी इस मुद्दे को हल करने में कोई रुचि नहीं ले रही थी, यही वजह था कि जब बंगाल से होते हुए नक्लवाद ने बिहार में दस्तक दी, तो यहां के गरीबों ने सहजता से अपने द्वार खोल दिए.

बिहार में जब नक्सलवाद का प्रवेश हुआ, तो इसका उद्देश्य कोई जातीय संघर्ष कराना नहीं था. दरअसल कम्युनिस्ट विचारधारा में सबके लिए समानता की बात की जाती है और गरीबों के उत्थान की बात की जाती है. उस वक्त बिहार की जो सामाजिक स्थिति थी उसमें दलित ही पिछड़े और शोषित थे और सवर्ण जाति के लोग जमींदार और शोषक. इसी वजह से दलितों और सवर्णों के बीच एक विभाजक रेखा यानी बांटने वाली रेखा खिंच गई, जो जातीय संघर्ष की वजह बना.

नक्सली बने शोषितों ने आवाज और बंदूक उठाया

दलित समाज वर्षों से शोषित और पीड़ित था. नक्सलवाद के प्रभाव में उनकी दबी हुए आवाज को मुखरता मिली और दलितों ने अपना शोषण करने वालों के खिलाफ हथियार उठा लिया. जब दलित मुखर हुए तो सवर्णों खासकर भूमिहारों के लिए यह बात उनके आन के खिलाफ गई और उन्होंने दलितों को कुचलने के लिए उनका नरसंहार शुरू किया और फिर यह सिलसिला चल पड़ा.दलितों के साथ क्रूरता इसलिए की गई क्योंकि उन्होंने शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद की थी, उनपर नक्सलियों का समर्थक होने का आरोप लगा और उनके गांव के गांव जला दिए गए. महिलाओं और बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया. एक साथ 30-40-50 लोगों को मार दिया जाता था, क्योंकि उनकी सामाजिक हैसियत कम थी और वे कमजोर थे.

नरसंहार और तत्कालीन सरकारों की भूमिका

बिहार में जिस वक्त पहला नरसंहार हुआ था, देश में जनता पार्टी की सरकार थी. लेकिन बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू था, यानी एक तरह से बिहार में भी जनता पार्टी की ही सरकार थी. 1977 के बेलछी नरसंहार को सरकारों ने बहुत महत्व नहीं दिया था, बाद में जब खबर राष्ट्रीय मीडिया में आने लगी तो इस ओर सरकार का ध्यान गया. बेलछी के बाद कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने. नरसंहारों में दलितों को ज्यादा नुकसान हुआ, उस वक्त यह कहा गया कि सरकारें सवर्णों की हितैषी थी, लेकिन जब बिहार में पिछड़ों के सर्वाधिक सशक्त देता लालू यादव सत्ता में थे, तो लक्ष्मणपुर बाथे और शंकर बिगहा जैसा नरसंहार हुआ,जिसमें दलितों के गांव जला दिए गए और बच्चों और महिलाओं को भी नहीं छोड़ा गया. कहने का आशय यह है कि नरसंहारों को रोकने में राजनीतिक पार्टियों की रुचि नहीं दिखती थी, जिसकी वजह से गरीबों को न्याय नहीं मिला, लेकिन 2005 में जब नीतीश कुमार की सरकार बिहार में आई तो सरकार ने नक्सलियों और रणवीर सेना दोनों पर लगाम कसी और इन्हें लगातार कमजोर किया, जिसकी वजह से बिहार से एक तरह से जातीय संघर्ष समाप्त हुआ और नरसंहारों का दौर थमा. रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर मुखिया को 2002 में गिरफ्तार किया गया था, जिसके बाद नरसंहारों पर लगाम कसने का दौर शुरू हुआ. 

              

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