Monday, June 23, 2025 06:03:27 PM

गौतमबुद्ध नगर में RTE की विफलता
ग्रेटर नोएडा: RTE सीटों पर 1575 बच्चों का भविष्य अधर में

गौतमबुद्ध नगर जिले में RTE के तहत बच्चों के प्रवेश की दर में कमी आई है, केवल 63% बच्चों को ही स्कूलों में प्रवेश मिला है।

ग्रेटर नोएडा rte सीटों पर 1575 बच्चों का भविष्य अधर में
सरकार का नियम | पाठकराज
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ग्रेटर नोएडा। शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) के तहत गरीब और वंचित वर्ग के बच्चों को निजी स्कूलों में आरक्षित 25% सीटों पर प्रवेश दिलाने में गौतमबुद्ध नगर पिछड़ गया है। जिले में 2024-25 सत्र के लिए 4267 बच्चों को स्कूलों में दाखिले के लिए आवंटन पत्र जारी किए गए, लेकिन तीन महीने बीत जाने के बावजूद 1575 बच्चों को अब तक स्कूल में दाखिला नहीं मिल सका है।

 

प्रदेश में ‘बॉटम 10’ में पहुंचा जिला

शासन द्वारा की गई हालिया समीक्षा में गौतमबुद्ध नगर की स्थिति चिंताजनक पाई गई है। जिले में अब तक महज 63% बच्चों को प्रवेश दिलाया जा सका है, जो कि राज्य के निचले 10 जिलों में इसे खड़ा करता है। बाकी के 37% अभिभावक अब भी स्कूलों और शिक्षा विभाग के चक्कर काट रहे हैं।

"हम हर रोज स्कूल जाते हैं, प्रिंसिपल से मिलते हैं, लेकिन बच्चा आज भी स्कूल के गेट के बाहर है।"
एक अभिभावक, सेक्टर 33 क्षेत्र से

 

मनमानी पर उतरे स्कूल, कार्रवाई शुरू

बेसिक शिक्षा निदेशालय ने जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी (BSA) को निर्देश दिए हैं कि बच्चों को प्रवेश न देने वाले स्कूलों को नोटिस जारी कर मान्यता रद्द करने की कार्रवाई की जाए। अधिकारियों की सख़्ती के चलते अब तक 50 से ज्यादा स्कूलों को नोटिस भेजा जा चुका है, जिनमें नामी संस्थान जैसे DPS केपी-5 और रामाज्ञा स्कूल (सेक्टर 50) शामिल हैं। इन दोनों स्कूलों की मान्यता रद्द करने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गई है।

 

छोटे-बड़े स्कूलों को लेकर पसोपेश

कुछ मामलों में यह भी सामने आया है कि कुछ अभिभावक छोटे स्कूलों में बच्चों का दाखिला नहीं कराना चाहते, और बड़े स्कूलों में स्थानांतरण की मांग कर रहे हैं। विभाग के अनुसार, ऐसे सभी मामलों में सुनवाई कर स्कूल और अभिभावकों को आमने-सामने बैठाकर समाधान निकालने का प्रयास किया गया है।

 

प्रशासनिक सख़्ती रंग लाई, लेकिन सफर अधूरा

बेसिक शिक्षा अधिकारी राहुल पंवार के मुताबिक,

“पिछले वर्षों की तुलना में यह पहली बार है जब जिले में RTE के तहत 63% सीटों पर बच्चों का प्रवेश हुआ है। यह सख्ती का असर है। जुलाई में और अधिक बच्चों को प्रवेश दिलाया जाएगा।”

 

सवाल उठता है

क्या शिक्षा के संवैधानिक अधिकार की रक्षा निजी स्कूलों की मर्जी पर होनी चाहिए?

क्या तीन महीने तक बच्चे स्कूल से बाहर रहेंगे, सिर्फ इसलिए क्योंकि स्कूल उनकी ‘प्रोफाइल’ से खुश नहीं हैं?

क्या ‘शिक्षा’ अब भी एक अधिकार है या महज़ एक ‘ब्रांडेड सुविधा’?

 

जमीनी हकीकत यह है कि

जहां एक ओर सरकार ‘सबको शिक्षा, अच्छी शिक्षा’ का नारा देती है, वहीं दूसरी ओर निजी स्कूल इस नारे को अपनी फीस और 'फिल्टर नीति' से नाकाम कर रहे हैं। गरीब बच्चों के लिए आरक्षित सीटों पर भी भेदभाव और हिचकिचाहट नजर आती है। अब देखना यह होगा कि जुलाई आते-आते प्रशासन इस 37% आंकड़े को ‘100% हकदारी’ में बदल पाता है या नहीं।


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